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व्यन्त्विन्नु येषु॑ मन्दसा॒नस्तृ॒पत्सोमं॑ पाहि द्र॒ह्यदि॑न्द्र। अ॒स्मान्त्सु पृ॒त्स्वा त॑रु॒त्राव॑र्धयो॒ द्यां बृ॒हद्भि॑र॒र्कैः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vyantv in nu yeṣu mandasānas tṛpat somam pāhi drahyad indra | asmān su pṛtsv ā tarutrāvardhayo dyām bṛhadbhir arkaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व्यन्तु॑। इत्। नु। येषु॑। म॒न्द॒सा॒नः। तृ॒पत्। सोम॑म्। पा॒हि॒। द्र॒ह्यत्। इ॒न्द्र॒। अ॒स्मान्। सु। पृ॒त्ऽसु। आ। त॒रु॒त्र॒। अव॑र्धयः। द्याम्। बृ॒हत्ऽभिः॑। अ॒र्कैः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:11» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तरुत्र) अविद्या से तारनेवाले (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् विद्वान् ! जैसे सूर्यमण्डल (बृहद्भिः) बड़ी-बड़ी (अर्कैः) किरणों से (द्याम्) प्रकाश को (नु,आ,अवर्धयः) शीघ्र अच्छे प्रकार बढ़ाता है, वैसे आप (अस्मान्) हम लोगों की (पृत्सु) संग्रामो में रक्षा कीजिये (येषु) जिनमें विद्वान् जन (सोमम्) ऐश्वर्य की (व्यन्तु) कामना करें उनमें (मन्दसानः) आनन्द को प्राप्त (तृपत्) तृप्त और (द्रह्यत्) दृढ़ होते हुए (इत्) ही आप ऐश्वर्य की (सुपाहि) अच्छे प्रकार रक्षा करें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य जिन विद्वान् जनों में निवास करते और ऐश्वर्य को प्राप्त होकर तृप्त होते हुए औरों को तृप्त करते हैं, उनमें वे सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे तरुत्रेन्द्र यथा सूर्यो बृहद्भिरर्कैर्द्यामावर्द्धयस्तथा त्वमस्मान् पृत्सु पाहि। येषु विद्वांसः सोमं व्यन्तु तेषु मन्दसानः तृपद्द्रह्यदिदैश्वर्यं सुपाहि ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (व्यन्तु) कामयन्ताम् (इत्) एव (नु) सद्यः (येषु) (मन्दसानः) आनन्दितः (तृपत्) तृप्तः सन् (सोमम्) ऐश्वर्यम् (पाहि) (द्रह्यत्) दृढः सन् (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् (अस्मान्) (सु) (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (आ) (तरुत्र) अविद्यातारक (अवर्द्धयः) वर्द्धयति (द्याम्) प्रकाशम् (बृहद्भिः) महद्भिः (अर्कैः) किरणैः ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या येषु विद्वत्सु निवसन्त ऐश्वर्यं प्राप्य तृप्ताः सन्तोऽन्याँस्तर्पयन्ति तेषु सूर्यवत्प्रकाशिता भवन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे ज्या विद्वान लोकात राहतात, ऐश्वर्य प्राप्त करून तृप्त होतात व इतरांनाही तृप्त करतात त्यांच्यामध्ये ती सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ १५ ॥